Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 33

धृत्या यया धारयते मन:प्राणेन्द्रियक्रिया: |
योगेनाव्यभिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्त्विकी || 33||

धृत्या संकल्प द्वारा; यया-जिससे; धारयते धारण करता है; मन:-मन का; प्राण-जीवन शक्ति; इन्द्रिय-इन्द्रियों के क्रिया:-क्रिया कलापों को; योगेन योगाभ्यास द्वारा; अव्यभिचारिण्या-दृढ़ संकल्प के साथ; धृतिः-दृढ़ निश्चय; सा-वह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; सात्त्विकी-सत्त्वगुणी।

Translation

BG 18.33: जो धृति योग से विकसित होती है और जो मन, प्राण शक्ति और इन्द्रियों को स्थिर रखती है उसे सात्त्विक धृति (संकल्प) कहते हैं।

Commentary

धृति अर्थात् संकल्प, मन और बुद्धि की आंतरिक शक्ति है जिसके कारण हम बाधाओं के बाबजूद अपने मार्ग पर अडिग रहते हैं। धृति हमारी दृष्टि को लक्ष्य की ओर केन्द्रित करती है और हमारी यात्रा में आने वाली दुर्गम बाधाओं को पार करने के लिए शरीर, मन और बुद्धि की प्रच्छन्न शक्तियों को एकत्रित करती है। श्रीकृष्ण अब तीन प्रकार के संकल्प की व्याख्या करते हैं। योग के अभ्यास द्वारा मन अनुशासित हो जाता है तथा शरीर और इन्द्रियों को वश में करने की क्षमता विकसित करता है। दृढ़ संकल्प तब विकसित होता है जब कोई इन्द्रियों का दमन और प्राण को अनुशासित करना तथा मन पर नियंत्रण रखना सीख लेता है। मन को नियंत्रित करना सात्त्विक धृति है।

Swami Mukundananda

18. मोक्ष संन्यास योग

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